सिविल या क्रिमिनल केस में विरोधी पक्षकार की मृत्यु होने पर केस का क्या होता है?
भारत में न्यायालय में चलने वाले मुकदमे वर्षों वर्ष चलते हैं। ऐसी स्थिति में अभियुक्त भी मर जाते हैं। एक अभियुक्त के मर जाने से अभियोजन समाप्त नहीं होता है अपितु उसके दोषसिद्धि या दोषमुक्ति अंत तक निर्धारित नहीं होती है। जिस दिन न्यायालय द्वारा मामले में निर्णय लिया जाता है उस दिन ही यह माना जाता है कि वह व्यक्ति दोषी था या नहीं। हालांकि अभियोजन की ओर से किसी अभियुक्त की मृत्यु हो जाने पर एक आवेदन प्रस्तुत कर दिए जाने पर न्यायालय मामले को आगे नहीं चलाता है, परंतु अभियुक्त के परिवार जन किसी विशेष मामले में अभियुक्त को बरी करवाना चाहते हो तथा मुकदमे को आगे चलाना चाहते हो तब अभियोजन को पूरा चलाया जा सकता है। अगर किसी अभियोजन में एक से अधिक अभियुक्त है तब तो अभियोजन के समाप्त होने का कोई सवाल ही नहीं उठता है। जो अभियुक्त जिंदा है उन पर तो मुकदमा चलाया ही जाएगा। अंत में जिंदा अभियुक्त दोषसिद्ध पाए जाते हैं तब उन्हें दंडित करने के लिए जेल भी भेजा जा सकता है।
किसी भी मामले में वादी और प्रतिवादी दो पक्षकार होते हैं। वादी वो व्यक्ति या पार्टी होती है जो दूसरे पार्टी पर मुकदमा दर्ज करता है या लाता है। और प्रतिवादी वह व्यक्ति होता है जिसपर मुकदमा कराया जाता है और जो मुकदमे का बचाव करता है। कई बार ऐसी यह स्थिति हो जाती है कि जिस व्यक्ति के विरुद्ध मुकदमा लाया गया है उस व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है।
वाद समाप्त होगा या नहीं यह केस पर आधारित होता है किस टाइप का केस।
मुख्यतः केस 2 तरीके के होते है:
- सिविल केस
- क्रिमिनल केस
सिविल केस में पीड़ित की मौत होने पर स्थिति:
- जैसे वादी ने प्रतिवादी से कोई संपत्ति खरीदने के बाद में किसी प्रकार का कोई एग्रीमेंट किया था और उस पर विवाद है। प्रतिवादी की मौत के बाद भी यह वाद समाप्त नहीं होता है।
- क्योंकि प्रतिवादी के किसी कार्य या लोप से वादी को हानि होती है और उसकी पूर्ति प्रतिवादी की मौत हो जाने पर भी नहीं होती है। इसके संबंध में सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 22 के प्रावधान को देखा जाता हैं।
- मामले में किसी भी व्यक्ति की मृत्यु हो जाने से सभी मामलो में वाद समाप्त नहीं होता है। जैसे अगर पति और पत्नी के बीच तलाक या भरण पोषण जैसा कोई मुकदमा चल रहा है और प्रतिवादी की मौत हो जाती है तब वाद समाप्त हो जाता है। लेकिन अनेक मामले ऐसे है जहां प्रतिवादी की मौत के बाद भी वाद समाप्त नहीं होता है।
- जहां पर किसी प्रतिवादी की मौत हो जाने पर किसी भी मामले में सर्वप्रथम वाद को देखा जाता है। अगर मौत के बाद भी वाद का कोई आधार बनता है तब न्यायालय प्रतिवादी के उत्तराधिकारियों को मामले में पक्षकार बना देता है।
- यदि कोई संपत्ति का कब्जा लेना है या फिर कोई रुपए पैसों की वसूली है तब प्रतिवादी की संपत्तियों की नीलामी कर ऐसी वसूली की जा सकती है। प्रतिवादी के उत्तराधिकारी उसकी ओर से मामले में प्रस्तुत होने के लिए बाध्य होते हैं।
क्रिमिनल केस में पीड़ित की मौत होने पर स्थिति:
- किसी आपराधिक मामले (Criminal Case) में पीड़ित की मौत होने पर अभियोजन पर किसी भी प्रकार का कोई भी प्रभाव नहीं पड़ता है। जैसे कि किसी व्यक्ति को चाकू मारकर घायल किया गया है। चाकू से हमला करने वाले व्यक्तियों पर स्टेट अभियोजन चला रही है। कुछ समय बाद जिस व्यक्ति को चाकू से मारा गया था, उसकी मौत हो जाती है, तब मामला खत्म नहीं होता है।
- अभियोजन तो चलता रहता है। स्टेट उस मामले को अंत तक चलाती है। एक पीड़ित की मौत होने से केवल अभियोजन में एक गवाह कम हो जाता है। अगर पीड़ित ने गवाही दे दी है तब गवाह भी कम नहीं होता है। एक पीड़ित की मौत के बाद भी अभियुक्त को दंडित किया जा सकता है।
- पीड़ित की मौत होने पर उसके उत्तराधिकारी की ओर से किसी भी आवेदन को लगाने की आवश्यकता नहीं होती है। यह सिविल मामले से अलग होता है, आपराधिक मामले में ऐसा नहीं होता है।
- परिवाद पर दर्ज किए गए आपराधिक मामले में पीड़ित की मौत होने पर उसके उत्तराधिकारी आवेदन के माध्यम से स्वयं को उपस्थित कर सकते हैं। जैसे कि कोई चेक बाउंस होने पर नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट की धारा 138 के अधीन अभियोजन चलने पर पीड़ित की मौत हो जाने पर उसके वैध उत्तराधिकारी न्यायालय में उपस्थित होकर आगे मामले का संचालन कर सकते हैं तथा मरने वाले व्यक्ति की ओर से उत्तराधिकार के रूप में प्रतिकर भी प्राप्त कर सकते हैं।
प्रतिवादी की मौत के बाद उत्तराधिकारियों को शामिल करना:
- किसी भी मामले में प्रतिवादी की मौत हो जाने पर उसके उत्तराधिकारियों को पक्षकार बनाया जाता है। प्रतिवादी की मौत हो जाने पर उत्तराधिकारियों को पक्षकार बनाने संबंधित Civil Procedure Code के आदेश 22 में दी गई है। जहां स्पष्ट रूप से बताया गया है कि ऐसा पक्षकार बनाने हेतु वादी को न्यायालय में एक आवेदन देना होता है।
- आवेदन में यह बताना होता है कि प्रतिवादी, जिसके खिलाफ केस दर्ज करवाया था उसकी मौत हो चुकी है और प्रतिवादी के उत्तराधिकारियों को मुकदमे में पक्षकार बनाया जाए। यह आवेदन 90 दिनों के भीतर प्रस्तुत करना होता है। अगर तय समयसीमा के भीतर ऐसा आवेदन प्रस्तुत नहीं किया जाता है तब न्यायालय मामले को खारिज कर देता है।
- कई बार ऐसा भी होता है की वादी को प्रतिवादी की मौत की सूचना ही नहीं मिलती तब Limitation Act की धारा 5 के अंतर्गत उसे छूट मिल सकती है और न्यायालय इस बात को मान सकता है कि सूचना नहीं मिलने के कारण प्रतिवादी की ओर से आवेदन प्रस्तुत नहीं किया गया।
- जैसे ही वादी को प्रतिवादी की मौत की सूचना मिलती है, वैसे ही उसके उत्तराधिकारियों की जानकारी निकाल कर उन्हें मामलों में पक्षकार बनाने का आवेदन वादी को देना चाहिए। अगर वादी को प्रतिवादी के उत्तराधिकारियों के बारे में स्पष्ट रूप से जानकारी नहीं है तब वह न्यायालय में किसी एक उत्तराधिकारी के संबंध में ही उल्लेख कर दे।
- बाद में उस उत्तराधिकारी की यह जिम्मेदारी है कि वह कोर्ट में अपने अन्य लोगों के संबंध में भी जानकारी दें कि मरने वाले व्यक्ति के वह लोग उत्तराधिकारी हैं। प्रतिवादी के जितने भी वैध उत्तराधिकारी हैं सभी को मामले में पक्षकार बनाया जा सकता है या सभी की ओर से किसी एक को भी पक्षकार बनाया जा सकता है।
- एक अभियुक्त जिस पर कोई मुकदमा चलाया जा रहा है यदि वे कोई अपराध करता है तब उसका अपराध पीड़ित के खिलाफ नहीं होता है, अपितु स्टेट के खिलाफ होता है। जैसे कि भारत सरकार ने संसद द्वारा अधिनियम में कोई व्यक्ति उतावलेपन से गाड़ी चलता है तो उसे Motor Vehicle Act के अंतर्गत एक अपराध बनाया है।
- ऐसे उतावलेपन के कारण अगर किसी व्यक्ति को किसी भी तरह की कोई क्षति होती है तब वह व्यक्ति पीड़ित होगा। लेकिन होने वाला अपराध राज्य के विरुद्ध होगा। राज्य, न्यायालय में उस अपराध का अभियोजन चलाता है। अपराध साबित होने पर अभियुक्त को दोषसिद्ध कर दंडित किया जाता है।
- एक आपराधिक मामले में अभियुक्त होते हैं और पीड़ित होते हैं। पीड़ित वह होता है जिसे अपराध के जरिए नुकसान पहुंचाया गया है। अगर किसी आपराधिक मामले में अभियुक्त या पीड़ित की मौत हो जाती है तब परिस्थितियां भिन्न हो जाती है।
उत्तराधिकार इत्यादि के मामलों में हत्या का आरोप लगने पर कोई व्यक्ति को उत्तराधिकार नहीं मिलता है। इसलिए हत्या जैसे मामलों में अभियुक्त के उत्तराधिकारी न्यायालय से यह निवेदन करते हैं कि अभियोजन को पूरा चलाया जाए, ताकि इससे यह स्पष्ट हो सके की मरने वाला अभियुक्त दोषी था या नहीं। उत्तराधिकार विधि में यदि कोई व्यक्ति हत्या का दोषी पाया जाता है तब उसे उत्तराधिकार नहीं प्राप्त होता है।
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