Aftab Shraddha Murder Case: What is Narco Test? Aftab got permission for a Narco test
आफताब श्रद्धा मर्डर केस: नार्को टेस्ट क्या होता है? आफताब को मिली नार्को टेस्ट की अनुमति
नार्को टेस्ट की अनुमति हर किसी केस में नहीं दी। नार्को टेस्ट की अनुमति केवल कोर्ट ही दे सकता है और ये निर्धारित करता है केस के आधार पर। कई बार आरोपी को अपराध किये हुए अधिक समय हो जाता है और वो बाद में उस अपराध की जानबूझकर भूलने का नाटक करता है, तो ऐसे में पुलिस नार्को टेस्ट का सहारा लेती है। अक्सर ऐसे घिनौने काम को अंजाम देने के बाद आरोपी पुलिस को गुमराह करने के लिए अलग अलग बयान देता है। इसके साथ ही झूठी कहानियाँ बनाता है और सच नहीं उगलता है। ऐसे में सच उगलवाने के लिए नार्को टेस्ट का सहारा लिया जाता है।
नार्को शब्द की उत्पत्ति:
- नार्को शब्द ग्रीक शब्द नार्को (जिसका अर्थ है एनेस्थीसिया या टॉरपोर) से लिया गया है। इसका उपयोग एक क्लीनिकल और मनोचिकित्सा तकनीक का वर्णन करने के लिए किया जाता है, जो साइकोट्रोपिक दवाओं विशेष रूप से बार्बिटुरेट्स का उपयोग करता है।
नार्को टेस्ट में कोनसा ड्रग इंजेक्शन के माद्यम से दिया जाता है?
- नार्को टेस्ट में सोडियम पेंटोथल (sodium pentothal) नाम का इंजेक्शन लगाया जाता है। इस इंजेक्शन को ट्रूथ ड्रग (Truth Drug) के नाम से जाना भी जाना जाता है।
नार्को टेस्ट क्या होता है?
- नार्को टेस्ट एक ऐसा टेस्ट है जो कि आम भाषा में कहें तो अपराधी या आरोपी व्यक्ति से सच्चाई उगलवाने के लिए किया जाता है। नार्को टेस्ट में अपराधी के शरीर में सोडियम पेंटोथॉल ड्रग्स को इंजेक्शन के माध्यम से दिया जाता हैं। इस ड्रग्स को देने के बाद इंसान का एक्टिव दिमाग पूरी तरह से शांत और सुस्त अवस्था में चला जाता है। यह ठीक ऐसे ही है जैसे किसी व्यक्ति को हिप्नोटाइज़ करना। जब कोई व्यक्ति ज्यादा शराब पी ले तब उसका दिमाग पर कंट्रोल नहीं होता है।
- ऐसे में कहा जाता है कि शराब पीकर कोई भी झूठ नहीं बोलता। उसी तरह नार्को टेस्ट में भी आदमी का दिमाग पूरी तरह सुस्त अवस्था में चला जाता है। जिसके बाद व्यक्ति की लॉजिकल स्किल थोड़ी कम पड़ जाती है। और वह जानबूझकर या फिर दिमाग लगाकर मनगढ़ंत बातें नहीं कह पाता है और वह सच ही बोलता है। वह व्यक्ति कम संकोची हो जाता है और जानकारी प्रकट करने की अधिक संभावना होती है, जो आमतौर पर सचेत अवस्था में सामने नहीं आ पाती है। क्यूंकि झूठ बोलने के लिए व्यक्ति का दिमाग एक्टिव होना चाहिए। इसका उपयोग पहले महत्वपूर्ण मामलों को सुलझाने के लिए किया गया है।
नार्को टेस्ट किसकी उपिस्थति में करा जाता है ?
नार्को टेस्ट 4 लोगों की उपिस्थति में करवाया जाता है:
- डॉक्टर (फिजिकल एग्जामिन, दवा देना)
- फॉरेंसिक एक्सपर्ट (इंजेक्शन देने के बाद सवाल जवाब)
- जांच अधिकारी (जांच के लिए पूछताछ)
- मनोवैज्ञानिक (मानसिक रूप से जब दिमाग असंतुलित होता है तो उसका एग्जामिन करना)
नार्को टेस्ट किसका नहीं होता है ?
- सभी लोगों का नार्को टेस्ट नहीं होता है, इसके लिए भी अपराधी की चयन प्रक्रिया है। सबसे पहली बात, यह टेस्ट काफी खर्चीला होता है, इसमें सरकार के काफी पैसे खर्च होने के साथ प्रोफेशनल्स की टीम की जरूरत होती है। नार्को टेस्ट करने से पहले अपराधी की बॉडी की जांच की जाती है और देखा जाता है की व्यक्ति की मेडिकल कंडीशन नार्को टेस्ट के लायक है या नहीं।
- अगर अपराधी बीमार है या उसकी उम्र ज्यादा है या वो शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर है तो उसे नार्को टेस्ट के लिए अनफिट माना जाता है। ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि नार्को टेस्ट के लिए दी जाने वाली साइकोएक्टिव दवा व सोडियम पेंटोथॉल का इंजेक्शन काफी ज्यादा पावर वाला होता है। जिसकी वजह से इसका खतरनाक असर हो सकता है और व्यक्ति की मौत या कोमा में भी जा सकता है। इसलिए इन तमाम बिंदुओं की जांच के बाद ही नार्को टेस्ट करने की अनुमति देती है।
नार्को टेस्ट के लिए क्या कानून है ?
- साल 2010 में सेल्वी का केस में केजी बालाकृष्णन की तीन जजों की खंडपीठ ने कहा था कि जिस व्यक्ति का नार्को टेस्ट या पॉलीग्राफ टेस्ट लिया जाना है उसकी सहमति बहुत जरूरी है। इसीलिए सीबीआई या किसी अन्य एजेंसी को नार्को टेस्ट के लिए कोर्ट से अनुमति लेना जरूरी होता है। बिना अनुमति के ये टेस्ट नहीं लिया जा सकता है।
आरोपी को नार्को टेस्ट की जानकारी देना:
- नार्को टेस्ट के दौरान पहले ही आरोपी को विस्तार से जानकारी दी जाती है। इसके बाद मनोवैज्ञानिक के पास जांच अधिकारी (आईओ) के साथ एक बैठक होती है। लैबोरेटरी के विशेषज्ञ आरोपी के साथ बातचीत करते हैं, जहां उसे टेस्ट की प्रक्रिया के बारे में अवगत कराया जाता है क्योंकि इसके लिए उसकी सहमति अनिवार्य है।
- जब मनोवैज्ञानिक संतुष्ट हो जाते हैं कि आरोपी प्रक्रिया को पूरी तरह समझ गया है, तो उसकी डाक्टरी जांच की जाती है। उसके बाद प्रक्रिया शुरू होती है। जब डॉक्टर जांच के बाद यह कह देता है की आरोपी मेडिकल रूप से पूरी तरह फिट है तब नार्को टेस्ट किया जाता है।
आरोपी को ड्रग फूल-पत्ते और पहाड़ की तस्वीर दिखाई जाती है:
- आरोपी को पहाड़, फूल, पत्ते, बिल्डिंग इत्यादि की तस्वीरें और वीडियो दिखाई जाती है, जो घटना से जुड़ी नहीं होती है। थोड़ी देर के बाद उसे घटना से जुड़ी तस्वीर वीडियो दिखाई जाती है। इसके बाद बॉडी का रिएक्शन और दिमाग की अवस्था को देखा जाता है, जिसके आधार पर घटना की सच्चाई पता की जाती है। ये सब एक्सपर्ट की देखरेख में किया जाता है।
श्रद्धा मर्डर केस से पहले भी कई आरोपीयों को मिल चुकी है नार्को टेस्ट की अनुमति:
हाँ, भारत में श्रद्धा मर्डर केस से पहले भी कई मामलो में नार्को टेस्ट की अनुमति मिल चुकी है। श्रद्धा मर्डर केस में नार्को टेस्ट की वाला यह पहला मामला नहीं है।
- गुजरात दंगे में नार्को टेस्ट की अनुमति दी गई थी: गुजरात में 2002 में जब दंगे हुए थे, उन दंगो के बारे पता लगाने और इन्वेस्टीगेशन करने के लिए भी आरोपियों पर नार्को टेस्ट की अनुमति दी गई थी।
- अब्दुल करीम तेलगी केस: भारत का सबसे बड़ा स्टैम्प घोटाला जो की अब्दुल करीम तेलगी द्वारा किया गया था, और इस केस में भी कोर्ट ने नार्को टेस्ट की अनुमति दी थी। यह भारत का ऐसा केस था जिसका नार्को टेस्ट का लाइव टेलीकास्ट किया गया था। क्यूंकि इस स्टाम्प घोटाले में बहुत सारे पॉलिटिक्स लीडर भी शामिल थे। जिसका पता लगाने के लिए नार्को टेस्ट की अनुमति दी गई थी।
- अजमल कसाब का नार्को टेस्ट: 26/11 के मुंबई होटल ताज के हमले में अजमल कसाब के लिए भी नार्को टेस्ट की अनुमति दी गई थी।
- आशाराम बापू केस: आशाराम बापू के केस में भी आशाराम के खिलाफ नार्को टेस्ट की अनुमति दी गई थी। क्यूंकि आशाराम ने कई बार बयां बदले थे और पुलिस को गुमराह करता रहा। जिसके बाद सच्चाई का पता लगाने के लिए कोर्ट ने नार्को टेस्ट की अनुमति दी थी।
केस : दिलीप कुमार बासु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य 1997
- सुप्रीम कोर्ट ने इस केस में नार्को टेस्ट को संविधान के अनुच्छेद 21 है हनन बताया था। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में जीने का अधिकार दिया हुआ है। जब किसी व्यक्ति पर नार्को टेस्ट किया जाता है तो ये उस व्यक्ति की निजता है हनन माना जाता है। इसके साथ ही संविधान के अनुच्छेद 20(3) का भी हनन। इस अनुच्छेद में ये कहा गया है की किस भी व्यक्ति को उसके खुदके खिलाफ गवाही देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है। 1997 में ही सुप्रीम कोर्ट ने नार्को टेस्ट के लिए अनुमति देने का प्रावधान कर दिया था। नार्को टेस्ट की अनुमति देने से पहले केस की प्रकर्ति देखि जाएगी। यदि आरोपी बार बार अपने गवाहों से मुकरता है और पुलिस को गुमराह करता है और सच्चाई नहीं बताता है तो नार्को टेस्ट की अनुमति दी जा सकती है।
केस : सेल्वी और अन्य बनाम कर्नाटक राज्य और अन्य
- इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने नार्को टेस्ट की अनुमति को थोड़ी ढिलाई दी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा की जब आरोपी व्यक्ति खुद ही नार्को टेस्ट की अनुमति दे देता है बिना किसी दबाव के तो टेस्ट की अनुमति दी जा सकती है।